शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

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श्री गणेशाय नमः

The aim of the website is to establish the importance of VEDA and its relation with scentific knowledge by probing with current and known scientific experiments and theories.There are many RICHAS in different SUKATS of VEDA. We feel its impact on our daily life when we do JAPA in systematic way. How it effects in our daily life in different ways.Many of us can't deny the impact of GAYITRI MANTRA.(Rig.Veda-3/62/10)
Aim of the website is also to study and establish the base of VADIC MANTRAS.
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वेद-विद्या भारतीय संस्कृति का पहला प्रतीक है।वेद्यतेऽनेनेति वेदः अर्थात इससे सब कुछ जाना जाता है, इसलिये इसे वेद कहते हैं। अतः वेद का अर्थ है ज्ञान।
ब्रह्म क्या है? जीव क्या है? आत्मा क्या है? ब्रह्मांण्ड की उत्पत्ति कैसे हुई है? इन सभी बिंन्दुओं पर विस्त्रित व्याख्या हमारे वेदों में भरी पडी़ है। सम्पूर्ण पिण्ड-ब्रह्माण्ड और परमात्मा को जानने का विज्ञान ही वेद है। वेद मानव सभ्यता,भारतीय संस्कृति के मूल श्रोत हैं। इनमें मानव-जीवन के लौकिक एवं पारलौकिक उन्नति के लिये उपयोगी सभी सिद्धान्तों एवं उपदेशों का अद्भुत वर्णन है। वेद ज्ञान का अनन्त श्रोत है। कदाचित् सम्पूर्ण ज्ञान की अविरल धारा वेदों से ही प्रवाहित होकर लोक कल्याण का कारण बनी है।ऋग्वेद,यजुर्वेद,सामवेद तथा अथर्ववेद की ऋचाओं में न जाने कितने वैज्ञानिकअनुसंधानों का निचोड़ समाया है।न जाने कितने अनुसंधान आज वेदों में समाये इस असीम ज्ञान के परिपेक्ष्य में हो रहे हैं। वेद एक प्रकार से मंत्र का विज्ञान है जिसमें विराट् विश्व ब्रह्मांड कीउन अलौकिक शूक्ष्म एवं चेतन सत्ताओं एवं शक्तियों तक से सम्बन्ध स्थापित करने करने के गूढ़ रहस्य दिये हुये है। भौतिक विज्ञानी अभी तक इस क्षेत्र में मामुली सी जानकारी ही प्राप्त कर सके हैं। यह वेबसाइट वेदों में समाहित इन्हीं वैज्ञानिक अनुसंधानों को उजागर करने का प्रयास मात्र है।वेबसाइट बनाने का उदेश्य यह भी है कि समस्त मानवजाति अपने पूर्वजो द्वारा चाहे वो किसी धर्म, जाति, देश के रहे हों,के अथक परिश्रम, वैज्ञानिक चिन्तन,अनुभवो ,प्रयासों पर जो कि उनके द्वारा आगे आने वाली पीढ़ियों के सुख-शान्ति ,सम्पन्न ,स्वस्थ जीवन बिताने एवं पूरे विश्व का कल्याण करने के पथ पर अग्रसर होते रहने के उदेश्य से किये गये हैं,पर मानव-समाज की चेतना को जाग्रत करके इसपर चर्चा-परिचरचा करके सम्पूर्ण विश्व में सुख शान्ति का मार्ग ढ़ूढ़ने के लिये प्रेरित करना एवं उत्साहित करना है। कदाचित् सुधीजनों का सहयोग इसकी सार्थकता को प्रमाणिक स्वरूप दे सके।

(2)
मङ्गलाचरण
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मंङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।।
अक्षरों,अर्थसमूहों, रसों छन्दों और मंगलों की करने वाली सरस्वतीजी और गणेशजी की मैं वन्दना करता हूँ।।
नि षु सीद गणपते गणेषु त्वामाहुविर्प्रतमं कवीनाम् ।
न ऋते त्वत् क्रियते किंचनारे महामर्कं मघमञ्चित्र मर्च ।।
(ऋग्वेद १०।११२।९)
अर्थात-
हे गणपति! आप अपने भक्तजनों के मध्य प्रतिष्ठित हों। त्रिकालदर्शी ऋषिरूप कवियों में श्रेष्ठ! आप सत्कर्मो के पूरक हैं। आपकी अराधना के बिना दूर या समीप में स्थित किसी भी कार्य का शुभारम्भ नही होता । हे सम्पति एवं ऐश्वर्य के अधिपति! आप मेरी इस श्रद्धायुक्त पूजा-अर्चना ,अभीष्ट फल को देने वाले यज्ञ के रूप में सम्पन्न होने हेतु वर प्रदान करें।

उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्ते देवयन्तस्त्वेमहे ।
उप प्र यन्तु मरुतः सुदानव इन्द्र प्राशूर्भवा सचा।।
(ऋग्वेद १।४०।१)
हे मंत्रसिद्धि के प्रदाता परमदेव ! सत्यसंकल्प से आपकी ओर अभिमुख हमें आपका अनुग्रह प्राप्त हो। शोभन दान से युक्त वायुमंडल हमारे अनुकूल हो। हे सुख-धन के अधिष्ठाता! भक्ति-भाव से समर्पित भोग-राग को आप अपनी कृपा-दृष्टि से अमृतमय बनादें।
गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कविनामुपमश्रवस्तमम्।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ नः शृ्ण्वन्नूतिभिः सीद सादनम् ।।
(ऋग्वेद २।२३।१)
वसु,रुद्र,आदित्य आदि गणदेवों के स्वामी,ऋषिरूप कवियों में वंदनीय दिव्य अन्न-सम्पति के अधिपति,समस्त देवों में अग्रगण्य तथा मन्त्र-सिद्धि के प्रदाता हे गणपति! यज्ञ,जप तथा दान आदि अनुष्ठानों के माध्यम से आपका आह्वान करतें हैं। अप हमें अभय वर प्रदान करें।
ॐ भूभुर्वः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात् ।।
(ऋग्वेद ३।६२।१०)
उस प्राण स्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप,श्रेष्ठ, तेजस्वी परमात्मा को हम अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करे ।

त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।।
(ऋग्वेद ७।५९।१२) (शुक्ल यजुर्वेद ३।६०)

अर्थात-
हम त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकर की पूजा करते हैं,मंत्यधर्म से (मरणशील मानवधर्म मृत्यु से) रहित दिव्य सुगन्धि से युक्त, उपासकों के लिये धन-धान्य आदि पुष्टि को बढ़ाने वाले हैं। वे त्रिनेत्रधारी उर्वारुक(कर्कटी या ककड़ी-जो पकने पर स्वतः पौध से अलग हो जाती है) फल की तरह हम सबको अपमृत्यु या सांसारिक मृत्यु से मुक्त करें। स्वर्गरूप या मुक्तिरूप अमृत से हमको न छुड़ायें अर्थात् अमृत-तत्व से हम उपासकों को वंचित न करे ।

स्तुता मया वरदा वेदमाता प्र चोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्।
आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्। मह्यं दत्वा व्रजत ब्रह्मलोकम्।।

अर्थात- पापों का शोधन करने वाली वेदमाता हम द्विजों को प्रेरणा दें। मनोरथों को परिपूर्ण करने वाली वेदमाता आज हमने स्तुति की है। मनोऽभिलासित वरप्रदात्री यह माता हमें दीर्घायु, प्राणवान्;, प्रजावान्, पशुमान् धनवान्, तेजस्वी तथा कीर्तिशाली होंने का आशीर्वाद देकर ही ब्रह्मलोक को पधारें।

ॐ असतो मा सद् गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्माऽमृतं गमय।।

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदः पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
अर्थात्- ॐ की व्याख्या करते हुए शास्त्र कहते हैं कि - वह भी पूर्ण हे, यह भी पूर्ण है,पूर्ण से पूर्ण उत्पन्न होता है,और पूर्ण से पूर्ण निकल जाने के बाद पूर्ण ही शेष रह जाता है। ईश्वर परोक्ष है। जीव प्रत्यक्ष है। ईश्वर की पूर्णता प्रसिद्ध है किन्तु जीव भी अपूर्ण नहीं है क्यों कि जीव ईश्वर का ही अंश है।

(3)
ॐ-निवेदन-ॐ
चारो वेद, अठारहो पुराण, अनेको उपनिषदों,अबतक के विभिन्न वैज्ञानिक चिन्तनों में जो वर्णित है तथा जो कुछ अन्यत्र भी उपलब्ध है वो मैं अपनी बुद्धि के अनुसार मैं अपने अंतःकरण के सुख के लिये आपके समक्ष सामान्य भाषा में प्रस्तुत कर रहा हूँ,क्यौं कि मुझे अलंकारिक भाषा का भी उचित ज्ञान नहीं है। मुझे यह पूर्ण विश्वास है कि सज्जन (विवेकी जन) मेरी अज्ञानता की अनदेखी करते हुए मेरे प्रयास में अपने प्रयास को सामिल करके मेरे उदेश्य को सफल करने में अवश्य सुख का अनुभव करेगें।
वेद
वेद का अर्थ है ज्ञान।वेद शब्द विद सत्तायाम, विदज्ञाने,विदविचारणे एवं विद्लाभे इन चार धातुओं से उत्पन्न होता है। संक्षिप्त में इसका अर्थ है,जो त्रिकालबाधित सत्तासम्पन्न हो,परोक्ष ज्ञान का निधान हो,सर्वाधिक विचारो का भंडार हो और लोक परलोक के लाभों से परिपूर्ण हो। जो ग्रंथ इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट के परिहार के उपायों का ज्ञान कराता है,वह वेद है।
भारतीय मान्यता के अनुसार वेद ब्रह्मविद्या के ग्रंथभाग नही,स्वयं ब्रह्म हैं-शब्द ब्रह्म हैं। प्राचीन काल से हमारे ऋषि-महर्षि,आचार्य तथा भारतीय संस्कृति में आस्था रखने वाले विद्वानों ने वेद को सनातन,नित्य और अपौरूषेय माना हैं। उनकी यह मान्यता रही है कि वेद का प्रादुर्भाव ईश्वरीय ज्ञान के रूप में हुआ है। इसका कारण यह भी है कि वेदों का कोई भी निरपेक्ष या प्रथम उच्चरयिता नहीं है सभी अध्यापक अपने पूर्व-पूर्व के अध्यापकों से ही वेद का अध्ययन या उच्चारण करते हैं। वेद का ईश्वरीय ज्ञान के रूप में ऋषि-महर्षियों ने अपनी अन्तर्दृष्टि से प्रत्यक्ष दर्शन किया। द्रष्टाओं का यह भी मत है कि वेद श्रेष्ठतम ज्ञान-पराचेतना के गर्भ में सदैव से स्थित रहते हैं। परिष्कृत-चेतना-सम्पन्न ऋषियों के माध्यम से वे प्रत्येक कल्प में प्रकट होते हैं। कल्पान्त में पुनः वहीं समा जाते हैं।
वेद को श्रुति, छन्दस् मन्त्र आदि अनेक नामों से भी पुकारा जाता है।विष्णु,भागवत, वायु,मत्स्य आदि पुराणों के अनुसार त्रेतायुग के अन्त तक वेद एक ही था। द्वापर के अन्त में वेदव्यास ने वेद के चार विभाग कियेः-
१-ऋग्वेद ।
२-यजुर्वेद ।
३-सामवेद ।
४-अथर्ववेद ।
जिसमें नियताक्षर वाले मंत्रों की ऋचाएँ हैं,वह ऋग्वेद कहलाता है।जिसमें स्वरों सहित गाने में आने वाले मंत्र हैं, वह सामवेद कहलाता है। जिसमें अनितह्याक्षर वाले मंत्र हैं,वह यजुर्वेद कहलाता है। जिसमेंअस्त्र-शस्त्र,भवन निर्माण आदि लौकिक विद्याओं का वर्णन करने वाले मंत्र हैं, वह अथर्ववेद कहलाता है। वेद मंत्रों के समूह को शूक्त कहा जाता है,जिसमें एकदैवत्य तथा एकार्थ का ही प्रतिपादन रहता है।
वेद की समस्त शिक्षाएँ सर्वभौम है। वेद मानव मात्र को हिन्दू,सिख,मुसलमान,ईसाई बौद्ध,जैन आदि कुछ भी बनने के लिये नहीं कहतें। वेद की स्पष्ट आज्ञा है-मनुर्वभ। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में सृष्टि के मूल तत्व,गूढ़ रहस्य का वर्णन किया गया है।सूक्त में आध्यात्मिक धरातल पर विश्व ब्रह्मांड की एकता की भावना स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त हुई है।भारतीय संस्कृति में यह धारणा निश्चित है कि विश्व-ब्रह्मांड में एक ही सत्ता विद्यमान है,जिसका नाम रूप कुछ भी नहीं है ।

वेदों में विज्ञान
वेदों में गूढ़ विज्ञान-सम्बन्धी सामग्री विस्तृत मात्रा में संचित है। जिसमें से बहुत ही अल्प मात्रा में अबतक जानकारी हो सकी है,कारण यह है कि वैज्ञानिक सामग्री ऋचाओं में अलंकारिक भाषा में है जिसका शाब्दिक अर्थ या तो सामान्य सा दिखाई पड़ता है या वर्तमान सभ्यता के संदर्भ में प्रथम दृष्टितया कुछ तर्क संगत नहीं दिखलाई पड़ता जबकि उसी पर गहन विचार करनें के पश्चात उसका कुछ अंश जब समझ में आता है तो बहुत ही आश्चर्य होता है कि वेद की छोटी-छोटी ऋचाओं(सूत्रों) के रूप में कितने गूढ़ एवं कितने उच्च स्तर के वैज्ञानिक रहस्य छिपे हुए हैं।
कुछ ही समय पूर्व साइन्स रिपोर्टर नामक अंग्रेजी पत्रिका जो नेशनल इंस्टीच्युट आफ साइन्स कम्युनिकेशन्स ऐन्ड इन्फार्मेशन रिसोर्सेज (NISCAIR)/CSIR,डा०के० यस० कृष्णन मार्ग नई दिल्ली ११००१२ द्वारा प्रकाशित हुई थी,में माह मई २००७ के अंक में एक लेख ANTIMATTER The ultimate fuel के नाम के शीर्षक से छपा था। इस लेख के लेखक श्री डी०पी०सिहं एवं सुखमनी कौर ने यह लिखा है कि सर्वाधिक कीमती वस्तु संसार में हीरा, यूरेनियम, प्लैटिनम, यहाँ तक कि कोई पदार्थ भी नहीं है बल्कि अपदार्थ/या प्रतिपदार्थ अर्थात ANTIMATTER है। वैज्ञानिकों ने लम्बे समय तक किये गये अनुसंधानों एवं सिद्धान्तो के आधार यह माना है कि ब्रह्मांड में पदार्थ के साथ-साथ अपदार्थ या प्रतिपदार्थ भी समान रूप से मौजूद है। इस सम्बन्ध में वेदों में ऋग्वेद के अन्तर्गत नासदीय सूक्त जो संसार में वैज्ञानिक चिंतन में उच्चतम श्रेणी का माना जाता की एक ऋचा में लिखा है किः-
तम आसीत्तमसा गू---हमग्रे----प्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्।
तुच्छेच्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम्।।
(ऋग्वेद १०।१२९।३)
अर्थात्
सृष्टि से पूर्व प्रलयकाल में सम्पूर्ण विश्व मायावी अज्ञान(अन्धकार) से ग्रस्त था, सभी अव्यक्त और सर्वत्र एक ही प्रवाह था, वह चारो ओर से सत्-असत्(MATTER AND ANTIMATTER) से आच्छादित था। वही एक अविनाशी तत्व तपश्चर्या के प्रभाव से उत्पन्न हुआ। वेद की उक्त ऋचा से यह स्पष्ट हो जाता है कि ब्रह्मांड के प्रारम्भ में सत् के साथ-साथ असत् भी मौजूद था (सत् का अर्थ है पदार्थ) । यह कितने आश्चर्य का विषय है कि वर्तमान युग में वैज्ञानिकों द्वारा अनुसंधान पर अनुसंधान करने के पश्चात कई वर्षों में यह अनुमान लगाया गया कि विश्व में पदार्थ एवं अपदार्थ/प्रतिपदार्थ (Matter and Antimatter) समान रूप से उपलब्ध है। जबकि ऋग्वेद में एक छोटी सी ऋचा में यह वैज्ञानिक सूत्र पहले से ही अंकित है। उक्त लेख में यह भी कहा गया है कि Matter and Antimatter जब पूर्ण रूप से मिल जाते हैं तो पूर्ण उर्जा में बदल जाते है। वेदों में भी यही कहा गया है कि सत् और असत् का विलय होने के पश्चात केवल परमात्मा की सत्ता या चेतना बचती है जिससे कालान्तर में पुनः सृष्टि (ब्रह्मांड) का निर्माण होता है।
छान्दोग्योपनषद् में भी ब्रह्म एवं सृष्टि के बारे में यह उल्लेख आता है कि आदित्य (केवल वर्तमान अर्थ सूर्य नहीं, बल्कि व्यापक अर्थ में) ब्रह्म है। उसी की व्याख्या की जाती है। तत्सदासीत्-वह असत् शब्द से कहा जाने वाला तत्व, उत्पत्ति से पूर्व स्तब्ध, स्पन्दनरहित, और असत् के समान था, सत् यानि कार्याभिमुख होकर कुछ प्रवृति पैदा होने से सत् हो गया। फिर उसमें भी कुछ स्पन्दन प्राप्तकर वह अकुरित हुआ। वह एक अण्डे में परणित होगया। वह कुछ समय पर्यन्त फूटा; वह अण्डे के दोनों खण्ड रजत एवं सुवर्णरूप हो गये। फिर उससे जो उत्पन्न हुआ वह यह आदित्य है। उससे उत्पन्न होते ही वड़े जोरों का शब्द हुआ तथा उसी से सम्पूर्ण प्राणी और सारे भोग पैदा हुए हैं। इसीसे उसका उदय और अस्त होने पर दीर्घशब्दयुक्त घोष उत्पन्न होते हैं तथा सम्पूर्ण प्राणी और सारे भोग भी उत्पन्न होते हैं। अथ यत्तदजायत सोऽसावादित्यस्ततं जायमानं घोषा उलूलवोऽनुदतिष्ठन्त्सर्वाणि च भूतानि सर्वे च कामास्तस्मात्तस्योदयं प्रति प्रत्या यनं प्रति घोषा उलूलवोऽनुत्तिष्ठन्ति सर्वाणि च भूतानि सर्वे च कामाः। (छान्दग्योपनिषद् -शाङ्करभाष्यार्थ खण्ड १९ ।।३।। (अधुनिक वैज्ञानिक भी ब्रह्माण्ड के पैदा होने पर जोर की ध्वनि होना ही मानते है। स्टीफेन हाँकिंग महाविज्ञानी आंइस्टाइन के आपेक्षिकता सिद्धान्त की व्याख्या करते हुये घोषित करते है कि दिक् और काल (Time and space) का आरम्भ महाविस्फोट (Big bang) से हुआ और इसकी परणति ब्लैक होल से होगी।

पुराण
हिंदुओं के धार्मिक तथा उसके अतिरिक्त साहित्य में पुराणों का भी विशेष महत्व है। पुराणों को हिन्दुत्व का धार्मिक, दार्शनिक,ऐतिहासिक,वैयत्तिक,सामाजिक और राजनैतिक सस्कृति का लोकसंमत विश्वकोष समझा जा सकता है। सामान्यतः इनके पाँच लक्षण बतलाए गये हैः-(१) सर्ग (सृष्टि), (२) प्रतिसर्ग (लय और पुनः सृष्टि), (३) वंश (देवताओं की वंशावली), (४) मन्वन्तर (मनु के काल बिभाग) और (५) वंशानुचरित (राजाओं के वंशवृत)। श्रीमद्भा० ११।७।९-१० में पुराणों के दस लक्षण माने गये है जिसमें उपरोक्त के अतिरिक्त वृत्ति, रक्षा(ईश्वरावतार), मुक्ति, हेतु (जीव) और अपाश्रय (ब्रह्म) और होने चाहिये। पुराणों की संख्या अठारह मानी गई है, जो निम्न हैं-
(१)-ब्रह्म पुराण,
(२)-पद्म पुराण,
(३)-विष्णु पुराण,
(४)-वायु पुराण,
(५)-भागवत पुराण,
(६)-नारद पुराण,
(७)-मार्कण्डेय पुराण,
(८)-अग्नि पुराण,
(९)-भविष्य पुराण,
(१०)-ब्रह्मवैवर्त्त पुराण,
(११)-वराह पुराण,
(१२)-लिङ्ग पुराण,
(१३)-स्कन्द पुराण,
(१४)-वामन पुराण,
(१५)-कूर्म पुराण,
(१६)-मत्स्य पुराण,
(१७)-गरुड़ पुराण और
(१८)-ब्रह्मांड पुराण ।
पुराणों की नामावली संक्षिप्त में निम्न प्रकार हैः-
मद्वयं भद्वयं चैव ब्रत्रयं वचतुष्टकम्।
नालिंपाग्निपुराणानि कूस्कं गरुड़मेव च।।
(देवीभागवत १।३)
अर्थात- आदि अक्षर म- वाले २, भ -वाले २, ब्र -वाले ३, व -वाले ४,ना-वाला १, प-वाला १, अग्निपुराण १, कू-वाला १, स्क-वाला १ और गरुणपुराण १।


उपनिषद्
वेदशब्द का अर्थ ज्ञान है। वेद-पुरुष के शिरोभाग को उपनिषद् कहते हैं। उप (व्यवधानरहित) नि (सम्पूर्ण) षद् (ज्ञान)। किसी विषय के होने न होने का निर्णय ज्ञान से ही होता है। अज्ञान का अनुभव भी ज्ञान ही कराता है। अतः ज्ञान को प्रमाणित करने के लिए ज्ञान से भिन्न किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। उपनिषद् का अन्य अर्थ उप(समीप) निषत् -निषीदति-बैठनेवाला। अर्थात- जो उस परम तत्व के समीप बैठता हो।
उपनिषद्यते-प्राप्यते ब्रह्मात्मभावोऽनया इति उपनिषद् ।
अर्थात्-जिससे ब्रह्म का साक्षात्कार किया जा सके,वह उपनिषद् है।
मुक्तिकोपनिषद् में एक सौ आठ (१०८) उपनिषदों का वर्णन आता है, इसके अतिरिक्त अडियार लाइब्रेरी मद्रास से प्रकाशित संग्रह में से १७९ उपनिषदों के प्रकाशन हो चुके है। गुजराती प्रिटिंग प्रेस बम्बई से मुदित उपनिषद्-वाक्य-महाकोष में २२३ उपनिषदों की नामावली दी गई है, इनमें उपनिषद(१) उपनिधि-त्स्तुति तथा (२)देव्युपनिषद नं-२ की चर्चा शिवरहस्य नामक ग्रंथ में है लेकिन ये दोनों उपलब्ध नहीं हैं तथा माण्डूक्यकारिका के चार प्रकरण चार जगह गिने गए है इस प्रकार अबतक ज्ञात उपनिषदो की संख्या २२० आती हैः-
१-ईशावास्योपनिषद्
२-अक्षि-उपनिषद्
३-अथर्वशिखोपनिषद्
४-अथर्वशिर उपनिषद्
५-अद्वयतारकोपनिषद्
६अद्वैतोपनिषद्
७-अद्वैतभावनोपनिषद्
८-अध्यात्मोपनिषद्
९-अनुभवसारोपनिषद्
१०-अन्नपुर्णोंपनिषद्
११-अमनस्कोपनिषद्
१२-अमृतनादोपनिषद्
१३-अमृतबिन्दूपनिषद्(ब्रह्मबिन्दूपनिषद्)
१४-अरुणोपनिषद्
१५अल्लोपनिषद
१६-अवधूतोपनिषद्(वाक्यात्मक एवं पद्यात्मक)
१७-अवधूतोपनिषद्(पद्यात्मक)
१८-अव्यक्तोपनिषद्
१९-आचमनोपनिषद्
२०-आत्मपूजोपनिषद्
२१-आत्मप्रबोधनोपनिषद्(आत्मबोधोपनिषद्)
२२-आत्मोपनिषद्(वाक्यात्मक)
२३-आत्मोपनिषद्(पद्यात्मक)
२४-आथर्वणद्वितीयोपनिषद्
२५-आयुर्वेदोपनिषद्
२६-आरुणिकोपनिषद्(आरुणेय्युपनिषद्)
२७-आर्षेयोपनिषद्
२८-आश्रमोपनिषद्
२९-इतिहासोपनिषद्(वाक्यात्मक एवं पद्यात्मक)
३०-ईसावास्योपनिषद
उपनषत्स्तुति(शिव रहस्यान्तर्गत,अबी तक अनुपलब्ध है।)
३१-ऊध्वर्पण्ड्रोपनिषद् (वाक्यात्मक एवं पद्यात्मक)
३२-एकाक्षरोपनिषद्
३३-ऐतेरेयोपनिषद्(अध्यायात्मक)
३४-ऐतेरेयोपनिषद्(खन्ड़ात्मक)
३५-ऐतेरेयोपनिषद्(अध्यायात्मक)
३६-कठरुद्रोपनिषद्(कण्ठोपनिषद्)
३७-कठोपनिषद्
३८-कठश्रुत्युपनिषद्
३९-कलिसन्तरणोपनिषद्(हरिनामोपनिषद्)
४०-कात्यायनोपनिषद्
४१-कामराजकीलितोद्धारोपनिषद्
४२-कालाग्निरुद्रोपनिषद्
४३-कालिकोपनिषद्
४४-कालिमेधादीक्षितोपनिषद्
४५-कुण्डिकोपनिषद्
४६-कृष्णोपनिषद्
४७-केनोपनिषद्
४८-कैवल्योपनिषद्
४९-कौलोपनिषद्
५०-कौषीतकिब्राह्मणोपनिषद्
५१-क्षुरिकोपनिषद्
५२-गणपत्यथर्वशीर्षोपनिषद्
५३-गणेशपूर्वतापिन्युपनिषद्(वरदपूर्वतापिन्युपनिषद्)
५४-गणेशोत्तरतापिन्युपनिषद्(वरदोत्तरतापिन्युपनिषद्)
५५-गर्भोपनिषद्
५६-गान्धर्वोपनिषद्
५७-गायत्र्युपनिषद्
५८-गायत्रीरहस्योपनिषद्
५९-गारुड़ोपनिषद्(वाक्यात्मक एवं मन्त्रात्मक)
६०गुह्यकाल्युपनिषद्
६१-गुह्यषोढ़ान्यासोपनिषद्
६२-गोपालपूर्वतापिन्युपनिषद्
६३-गोपालोत्तरतापिन्युपनिषद्
६४-गोपीचन्दनोपनिषद्
६५-चतुर्वेदोपनिषद्
६६-चाक्षुषोपनिषद्(चक्षरुपनिषद्,चक्षुरोगोपनिषद्,नेत्रोपनिषद्)
६७-चित्त्युपनिषद्
६८-छागलेयोपनिषद्
६९-छान्दोग्योपनिषद्
७०जाबालदर्शनोपनिषद्
७१-जाबालोपनिषद्
७२-जाबाल्युपनिषद्
७३-तारसारोपनिषद्
७४-तारोपनिषद्
७५-तुरीयातीतोपनिषद्(तीतावधूतो०)
७६-तुरीयोपनिषद्
७७-तुलस्युपनिषद्
७८-तेजोबिन्दुपनिषद्
७९-तैत्तरीयोपनिषद्
८०-त्रिपादविभूतिमहानारायणोपनिषद्
८१-त्रिपुरातापिन्युपनिषद्
८२-त्रिपुरोपनिषद्
८३-त्रिपुरामहोपनिषद्
८४-त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्
८५-त्रिसुपर्णोपनिषद्
८६-दक्षिणामूर्त्युपनिषद्
८७-दत्तात्रेयोपनिषद्
८८-दत्तोपनिषद्
८९-दुर्वासोपनिषद्
९०-(१) देव्युपनिषद्(पद्यात्मक एवं मन्त्रात्मक)
(२) देव्युपनिषद्(शिवरहस्यान्तर्गत-अनुपलब्ध)
९१-द्वयोपनिषद्
९२-ध्यानबिन्दुपनिषद्
९३-नादबिन्दुपनिषद्
९४-नारदपरिब्राजकोपनिषद्
९५-नारदोपनिषद्
९६-नारायणपूर्वतापिन्युपनिषद्
९७-नारायणोत्तरतापिन्युपनिषद्
९८-नारायणोपनिषद्(नारायणाथर्वशीर्ष)
९९-निरालम्बोपनिषद्
१००-निरुक्तोपनिषद्
१०१-निर्वाणोपनिषद्
१०२-नीलरुद्रोपनिषद्
१०३-नृसिंहपूर्वतापिन्युपनिषद्
१०४-नृसिंहषटचक्रोपनिषद्
१०५-नृसिंहोत्तरतापिन्युपनिषद्
१०६-पञ्चब्रह्मोपनिषद्
१०७-परब्रह्मोपनिषद्
१०८-परमहंसपरिब्राजकोपनिषद्
१०९-परमहंसोपनिषद्
११०-पारमात्मिकोपनिषद्
१११-पारायणोपनिषद्
११२-पाशुपतब्राह्मोपनिषद्
११३-पिण्डोपनिषद्
११४-पीताम्बरोपनिषद्
११५-पुरुषसूक्तोपनिषद्
११६-पैङ्गलोपनिषद्
११७-प्रणवोपनिषद्(पद्यात्मक)
११८-प्रणवोपनिषद्(वाक्यात्मक
११९-प्रश्नोपनिषद्
१२०-प्राणाग्निहोत्रोपनिषद्
१२१-बटुकोपनिषद(बटुकोपनिषध)
१२२-ब्रह्वृचोपोपनिषद्
१२३-बाष्कलमन्त्रोपनिषद्
१२४-बिल्वोपनिषद्(पद्यात्मक)
१२५-बिल्वोपनिषद्(वाक्यात्मक)
१२६-बृहज्जाबालोपनिषद्
१२७-बृहदारण्यकोपनिषद्
१२८-ब्रह्मविद्योपनिषद्
१२९-ब्रह्मोपनिषद्
१३०-भगवद्गीतोपनिषद्
१३१-भवसंतरणोपनिषद्
१३२-भस्मजाबालोपनिषद्
१३३-भावनोपनिषद्(कापिलोपनिषद्)
१३४-भिक्षुकोपनिष
१३५-मठाम्नयोपनिषद्
१३६-मण्डलब्राह्मणोपनिषद्
१३७-मन्त्रिकोपनिषद्(चूलिकोपनिषद्)
१३८-मल्लायुपनिषद्
१३९-महानारायणोपनिषद्(बृहन्नारायणोपनिषद्,उत्तरनारायणोपनिषद्)
१४०-महावाक्योपनिषद्
१४१-महोपनिषद्
१४२-माण्डूक्योपनिषद्
१४३-माण्डुक्योपनिषत्कारिका
(क)-आगम
(ख)-अलातशान्ति
(ग)-वैतथ्य
(घ)-अद्वैत
१४४-मुक्तिकोपनिषद्
१४५-मण्डकोपनिषद्
१४६-मुद्गलोपनिषद्
१४७-मृत्युलाङ्गूलोपनिषद्
१४८-मैत्रायण्युपनिषद्
१४९-मैत्रेव्युपनिषद्
१५०-यज्ञोपवीतोपनिषद्
१५१-याज्ञवल्क्योपनिषद्
१५२-योगकुण्डल्युपनिषद्
१५३-योगचूडामण्युपनिषद्
१५४-(१) योगतत्त्वोपनिषद्
१५५-(२) योगतत्त्वोपनिषद्
१५६-योगराजोपनिषद्
१५७-योगशिखोपनिषद्
१५८-योगोपनिषद्
१५९-राजश्यामलारहस्योपनिषद्
१६०-राधोकोपनिषद्(वाक्यात्मक)
१६१-राधोकोपनिषद्(प्रपठात्मक)
१६२-रामपूर्वतापिन्युपनिषद्
१६३-रामरहस्योपनिषद्
१६४-रामोत्तरतापिन्युपनिषद्
१६५-रुद्रहृदयोपनिषद्
१६६-रुद्राक्षजाबालोपनिषद्
१६७-रुद्रोपनिषद्
१६८-लक्ष्म्युपनिषद्
१६९-लाङ्गूलोपनिषद्
१७०-लिङ्गोपनिषद्
१७१-बज्रपञ्जरोपनिषद्
१७२-बज्रसूचिकोपनिषद्
१७३-बनदुर्गोपनिषद्
१७४-वराहोपनिषद्
१७५-वासुदेवोपनिषद्
१७६-विश्रामोपनिषद्
१७७-विष्णुहृदयोपनिषद्
१७८-शरभोपनिषद्
१७९-शाट्यायनीयोपनिषद्
१८०-शाण्डिल्योपनिषद्
१८१-शारीरकोपनिषद्
१८२-(१)शिवसङ्कल्पोपनिषद्
१८३-(२)शिवसङ्कल्पोपनिषद्
१८४-शिवोपनिषद्
१८५-शुकरहस्योपनिषद्
१८६-शौनकोपनिषद्
१८७-श्यामोपनिषद्
१८८-श्रीकृष्णपुरुषोत्तमसिद्धान्तोपनिषद्
१८९-श्रीचक्रोपनिषद्
१९०-श्रीविद्यात्तारकोपनिषद्
१९१-श्रीसूक्तम
१९२-श्वेताश्वतरोपनिषद्
१९३-षोढोपनिषद्
१९४-सङ्कर्षणोपनिषद्
१९५-सदानन्दोपनिषद्
१९६-संन्यासोपनिषद्(अध्यायात्मक)
१९७-संन्यासोपनिषद्(वाक्यात्मक)
१९८-सरस्वतीरहस्योपनिषद्
२००-सर्वसारोपनिषद्( सर्वोप०)
२०१-स ह वै उपनिषद्
२०२-संहितोपनिषद्
२०३-सामरहस्योपनिषद्
२०४-सावित्र्युपनिषद्
२०५-सिद्धाँन्तविठ्ठलोपनिषद्
२०६-सिद्धान्तशिखोपनिषद्
२०७-सिद्धान्तसारोपनिषद्
२०८-सीतोपनिषद्
२०९-सुदर्शनोपनिषद्
२१०-सुबालोपनिषद्
२११-सुमुख्युपनिषद्
२१२-सूर्यतापिन्युपनिषद्
२१३-सूर्योपनिषद्
२१४-सौभाग्यलक्ष्म्युपनिषद्
२१५-स्कन्दोपनिषद्
२१६-स्वसंवेद्योपनिषद्
२१७-हयग्रीवोपनिषद्
२१८-हंसषोढोपनिषद्
२१९-हंसोपनिषद्
२२०-हेरम्बोपनिषद्
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छान्दोग्योपनिषद्ः-
प्रजापतिर्लोकानब्यतपत्तेब्योऽभितप्तेब्यस्त्रयी विद्या संप्रास्त्रवत्तामभ्यतपत्तस्या अभितप्ताया एतान्यक्षराणि संप्रास्त्रवन्त भूभूर्वः स्वरिति।।
प्रजापति ने लोकों के उदेश्य से ध्यान रूप तप किया। उन अभितप्त लोकों से त्रयी विद्या की उत्पत्ति हुई तथा उस अभितप्त त्रयी बिद्या से -भूः, भुवः और स्वः ये व्याहृतिरूप अक्षर उत्पन्न हुए।। (शाङकरभाष्यार्थ)

विश्वबन्धुत्व की भावनाः-
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा काश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।।
अर्थातः- सम्पूर्ण जीवौं को सुख प्राप्त हो, सब प्राणी निरोग हों,सबका कल्याण हो, किसि को भी कोई दुःख न हो।


ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि। सर्वं ब्रह्मौपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु। तदात्मनि
निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु।।
ॐ शान्तिः! शान्तिः!! शान्ति!!!
अर्थातः- मेरे (हाथ-पाँव आदि) अङ्ग सब प्रकार से पुष्ट हों, वाणी, प्राण,नेत्र, श्रोत्र पुष्ट हों तथा सम्पूर्ण इन्द्रियाँ बल प्राप्त करें। उपनिषद् में प्रतिपादित ब्रह्म ही सब कुछ है। मैं ब्रह्म का निराकरण (त्याग) न करूँ और ब्रह्म मेरा निराकरण न करे। इस प्रकार हमारा अनिराकरण (निरन्तर मिलन) हो, अनिराकरण हो। उपनिषदों में जो शम आदि धर्म कहे गये हैं वे ब्रह्मरूप आत्मा में निरन्तर रमण करने वाले मुझमें सदा बने रहें, मुझमें सदा बने रहें। आध्यात्मिक, अधिभौतिक और अधिदैविक ताप की शान्ति हों।

ॐ - उदगीथशब्दवाच्य-ॐ- इस अक्षर की उपासना करे--ॐ- यह अक्षर परमात्मा का सबसे समीपवर्ती (प्रियतम) नाम है। ॐ यह अक्षर उदगीथ है।
इन (चराचर) प्राणियों का पृथिवी रस (उत्पत्ति, स्थिति, और लय का स्थान) है। पृथिवी का रस जल है, जल का रस औषधियाँ हैं, औषधियों का रस पुरुष है, पुरुष का का रस वाक् है, वाक् का रस ऋक् है, ऋक् का रस साम है और साम का रस उदगीथ (ॐ) है। ऋक् और साम के कारणभूत वाक् और प्राण ही मिथुन है। वह यह मिथुन ॐ इस अक्षर में संसृष्ट होता है। जिस समय मिथुन (मिथुन के अवयव) परस्पर मिलते हैं उस समय वे एक दूसरे की कामनाओं को प्राप्त कराने वाले होते है। अतः ॐ अक्षर(उदगीथ) की उपसना करने वाले की संम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति होती है। ॐकार ही अनुमति सूचक अक्षर है।
--- ॐ का महत्व--
ॐ का महत्व इस तथ्य से भी जाना जा सकता है कि नासा के वैज्ञानिकों ने आन्तरिक्ष में किसी अन्य ग्रह पर जीवन है कि नहीं,यह जानने के लिये जो ध्वनि चुनकर भेजी है; वह ॐ ही है।इसका तातपर्य यह है कि ब्रह्मांड में ॐ ही एक ऐसी ध्वनि है जो सभी जगह पहचानी जा सकती है तथा सभी के मूल श्रोत के रूप में है।
श्रीमन्महर्षि वेदव्यासप्रणित वेदान्त-दर्शन के अनुसार जो तीन मात्राओं वाले ओम् रूप इस अक्षर के द्वारा ही इस परम पुरुष का निरन्तर ध्यान करता है, वह तेजोमय सूर्यलोक मे जाता है तथा जिस प्रकार सर्प केंचुली से अलग हो जाता है, ठीक उसी प्रकार से वह पापो से सर्वथा मुक्त हो जाता है। इसके बाद वह सामवेद की श्रुतियों द्वारा ऊपर ब्रह्मलोक में ले जाया जाता है। वह इस जीव-समुदाय रूप परमतत्त्व से अत्यन्त श्रेष्ठ अन्तर्यामी परमपुरुष पुरुषोत्तम को साक्षात् कर लेता है। तीनों मात्राओं से सम्पन्न ॐकार पूर्ण ब्रह्म परमात्मा ही है, अपरब्रह्म नहीं।
(ओ३म्) यह ओङ्कार शब्द परमेश्वर का सर्वोत्तम नाम है, क्योंकि यह तीन अक्षरों अ, उ, और म से मिल कर बना है, इनमें प्रत्येक अक्षर से भी परमात्मा के कई-कई नाम आते हैं। जैसे- अकार से विष्णु, विराट्, अग्नि और विश्वादि। उकार से महेश्वर, हिरण्यगर्भ, वायु और तैजसादि। मकार से ब्रह्मा, ईश्वर, आदित्य और प्रज्ञादि नामों का वाचक है। तथा अर्धमात्रा निर्गुण परब्रह्म परमात्मास्वरूप है। वेदादि शास्त्रों के अनुसार प्रकरण के अनुकूल ये सब नाम ईश्वर के ही हैं।
तैत्तरीयोपनिषद शीक्षावल्ली अष्टमोंऽनुवाकः में ॐ के विषय में कहा गया हैः-
ओमति ब्रह्म। ओमितीद ँूसर्वम्। ओमत्येदनुकृतिर्हस्म वा अप्यो श्रावयेत्याश्रावयन्ति। ओमति सामानि गायन्ति। ओ ँूशोमिति शस्त्राणि श ँूसन्ति। ओमित्यध्वर्युः प्रतिगरं प्रतिगृणाति। ओमिति ब्रह्मा प्रसौति। ओमित्यग्निहोत्रमनुजानति। अमिति ब्राह्मणः प्रवक्ष्यन्नाह ब्रह्मोपाप्नवानीति।ब्रह्मैवोपाप्नोति।।
अर्थातः- ॐ ही ब्रह्म है। ॐ ही यह प्रत्यक्ष जगत् है। ॐ ही इसकी (जगत की) अनुकृति है। हे आचार्य! ॐ के विषय में और भी सुनाएँ। आचार्य सुनाते हैं। ॐ से प्रारम्भ करके साम गायक सामगान करते हैं। ॐ-ॐ कहते हुए ही शास्त्र रूप मन्त्र पढ़े जाते हैं। ॐ से ही अध्वर्यु प्रतिगर मन्त्रों का उच्चारण करता है। ॐ कहकर ही अग्निहोत्र प्रारम्भ किया जाता है। अध्ययन के समय ब्राह्मण ॐ कहकर ही ब्रह्म को प्राप्त करने की बात करता है। ॐ के द्वारा ही वह ब्रह्म को प्राप्त करता है।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
अर्थातः- ॐ वह (परब्रह्म) पूर्ण है और यह (कार्यब्रह्म) भी पूर्ण; क्योंकि पूर्ण से ही पूर्ण की उत्पत्ति होती है। तथा (प्रलयकाल में) पूर्ण (कार्यब्रह्म) का पूर्णत्व लेकर (अपने में ही लीन करके) पूर्ण (परब्रह्म) ही बच रहता है। त्रिबिध ताप की शान्ति हो।
ॐ को प्रणव भी कहते हैं; जिसका अर्थ पवित्र घोष भी है। यह शब्द ब्रह्म बोधक भी है; जिससे यह विश्व उत्पन्न होता हे, जिसमें स्थित रहताहै और जिसमें लय हो जाता है। यह विश्व नाम-रूपात्मक है, उसमें जितने पदार्थ है इनकी अभिव्यक्ति वर्णों अथवा अक्षरों से ही होती है। जितने भी वर्ण है वे अ (कण्ठ्य स्वर) और म् ओष्ठय स्वर के बीच उच्चरित होते हैं। इस प्रकार ॐ सम्पूर्ण विश्व की अभिव्यक्ति, स्थिति और प्रलय का द्योतक है।
सर्वे वेदा यतपदमामन्ति
तपा ँूसि सर्वाणि च यद्वदन्ति।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति
तत्तेपद ँू संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्।।१५।
(कठोपनषद् अध्याय १ वल्ली २ श्लोक १५),
अर्थातः- सारे वेद जिस पद का वर्णन करते हैं, समस्त तपों को जिसकी प्राप्ति के साधक कहते हैं, जिसकी इक्षा से (मुमुक्षुजन) ब्रह्मचर्य का पालन करते है, उस पद को मैं तुमसे संक्षेप में कहता हूँ। ॐ यही वह पद है।
ऋग्भिरेतं यजुर्भिरन्तरिक्षं
सामभिर्यत्तत्कवयो वेदयन्ते।
तमोङ्कारेणैवायतनेनान्वेति विद्वान्
यत्तच्छान्तमजरममृतमभयं परं चेति।।७।।
(प्रश्नोपनिषद् प्रश्न ५ श्लोक ७),
अर्थातः- साधक ऋग्वेद द्वारा इस लोक को, यजुर्वेद द्वारा आन्तरिक्ष को और सामवेद द्वारा उस लोक को प्राप्त होता है जिसे विद्वजन जानते हैं। तथा उस ओंङ्काररूप आलम्बन के द्वारा ही विद्वान् उस लोक को प्राप्त होता है जो शान्त, अजर, अमर, अभय एवं सबसे पर (श्रेष्ठ) है।
प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत।।
(मुन्डकोपनिषद्-मुन्डक २ खन्ड २ श्लोक-४)
अर्थातः- प्रणव धनुषहै, (सोपाधिक) आत्मा बाण है और ब्रह्म उसका लक्ष्य कहा जाता है। उसका सावधानी पूर्वक बेधन करना चाहिए और बाण के समान तन्मय हो जाना चाहिए।।४।।
ओमित्येतदक्षरमिद ँ्सर्व तस्योपव्याख्यानं भूत, भवभ्दविष्यदिति सर्वमोंङ्कार एव। यच्चान्यत्त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव।।१।।
( माण्डूक्योपनिषद् गौ० का० श्लोक १)
अर्थातः-ॐ यह अक्षर ही सब कुछ है। यह जो कुछ भूत, भविष्यत् और वर्तमान है उसी की व्याख्या है; इसलिये यह सब ओंकार ही है। इसके सिवा जो अन्य त्रिकालातीत वस्तु है वह भी ओंकार ही है।
सोऽयमात्माध्यक्षरमोङ्कारोऽधिमात्रं पादा मात्रा मात्राश्च पादा अकार उकारो मकार इति।।८।। ( माण्डूक्योपनिषद् आ०प्र० गौ०का० श्लोक ८ )
वह यह आत्मा ही अक्षर दृष्टि से ओंङ्कार है; वह मात्राओं का विषय करके स्थित है। पाद ही मात्रा है और मात्रा ही पाद है; वे मात्रा अकार, उकार और मकार हैं।
यह आत्मा अध्यक्षर है; अक्षर का आश्रय लेकर जिसका अभिधान(वाचक) की प्रधानता से वर्णन किया जाय उसे अध्यक्षर कहते हैं। जिस प्रकार अकार नामक अक्षर अदिमान् है उसी प्रकार वैश्वानर भी है। उसी समानता के कारण वैश्वानर की अकार रूपता है। अकार निश्चय ही सम्पूर्ण वाणी है श्रुति के अनुसार अकार से समस्त वाणी व्याप्त है। ओङ्कार की दूसरी मात्रा ऊकार है उत्कर्ष के कारण जिस प्रकार अकार से उकार उत्कृष्ट-सा है उसी प्रकार विश्व से तैजस उत्कृष्ट है। जिस प्रकार उकार अकार और मकार के मध्य स्थित है उसी प्रकार विश्व और प्राज्ञ के मध्य तैजस है। सुषुप्ति जिसका स्थान है वह प्राज्ञ मान और लय के कारण ओङ्कार की तीसरी मात्रा मकार है। जिस प्रकार ओङ्कार का उच्चारण करने पर अकार और उकार अन्तिम अक्षर में एकीभूत हो जाते हैं उसी प्रकार सुषुप्ति के समय विश्व और तैजस प्राज्ञ में लीन हो जाते हैं। अमात्र-जिसकी मात्रा नहीं है वह अमात्र ओङ्कार चौथा अर्थात तुरीय केवल अत्मा ही है। इस प्रकार अकार विश्व को प्राप्त करादेता हैतथा उकार तैजस को और मकार प्राज्ञ को; किन्तु अमात्र में किसी की गति नहीं है। अतः प्रणव ही सबका आदि, मध्य और अन्त है।प्रणव को इस प्रकार जानने के अनन्तर तद्रूपता को प्राप्त हो जाता है। प्रणव को ही सबके हृदय में स्थिति ईश्वर जाने। इस प्रकार सर्वव्यापी ओङ्कार को जानकर बुद्धिमान पुरुष शोक नहीं करता। तैतरीयोपनिषद में कहा है कि जिस प्रकार शंकुओं(पत्तों की नसों) से संपूर्ण पत्ते व्याप्त रहते हैं उसी प्रकार ओंकार से सम्पूर्ण वाणी व्याप्त है-ओंकार ही यह सब कुछ है।

मन्त्रों का वैज्ञानिक महत्वः-
मंत्र ध्वनि-विज्ञान का शूक्ष्मतम विज्ञान है। मंत्र-शरीर के अन्दर से शूक्ष्म ध्वनि को विशिष्ट तरंगों में बदल कर ब्रह्मांड में प्रवाहित करने की क्रिया है जिससे बड़े-बड़े कार्य किये जा सकते हैं। प्रत्येक अक्षर का विशेष महत्व है। प्रत्येक अक्षर का विशेष अर्थ है। प्रत्येक अक्षर के उच्चारण में चाहे वो वाचिक,उपांसू या मानसिक हो विशेष प्रकार की ध्वनि निकलती है तथा शरीर में एवं विशेष अंगो नाड़ियों में विशेष प्रकार का कम्पन पैदा करती हैं जिससे शरीर से विशेष प्रकार की ध्वनि तरंगे/विद्युत निकलती है जो वातावरण/आकाशीय तरंगो से संयोग करके विशेष प्रकार की क्रिया करती हैं।विभिन्न अक्षर(स्वर-व्यंजन) एक प्रकार के बीज मंत्र हैं। विभिन्न अक्षरों के संयोग से विशेष बीज मंत्र तैयार होते है जो एक विशेष प्रकार का प्रभाव डालते हैं, परन्तु जैसे अंकुर उत्पन्न करने में समर्थ सारी शक्ति अपने में रखते हुये भी धान,जौ,गेहूँ अदि संसकार के अभाव में अंकुर उत्पन्न नहीं कर सकते वैसे ही मंत्र-यज्ञ आदि कर्म भी सम्पूर्ण फल जनन शक्ति से सम्पन्न होने पर भी यदि ठीक-ठीक से अनुष्ठित न किये जाय तो कदापि फलोत्पादक नहीं होता है।
घर्षण के नियमों से सभी विज्ञानवेत्ता भलीभातिं परचित होगें। घर्षण से ऊर्जा(ताप,विद्युत) आदि पैदा होती है। मंत्रों के जप से भी श्वांश के शरीर में आवागमन से तथा विशेष अक्षरों के अनुसार विशेष स्थानों की नाड़ियों में कम्पन(घर्षण) पैदा होने से विशेष प्रकार का विद्युत प्रवाह पैदा होता है, जो साधक के ध्यान लगाने से एकाग्रित (एकत्रित) होता है तथा मंत्रों के अर्थ (साधक को अर्थ ध्यान रखते हुए उसी भाव से ध्यान एकाग्र करना आवश्यक होता है।) के आधार पर ब्रह्मांड में उपस्थित अपने ही अनुकूल(ग्रहण करने योग्य) उर्जा से संपर्क करके तदानुसार प्रभाव पैदा करता है। रेडियो,टी०वी० या अन्य विद्युत उपकरणों में आजकल रिमोट कन्ट्रोल का सामान्य रूप से प्रयोग देखा जा सकता है। इसका सिद्धान्त भी वही है। मंत्रों के जप से निकलने वाली सूक्ष्म उर्जा भी ब्रह्मांड की उर्जा से संयोंग करके वातावरण पर बिशेष प्रभाव डालती है। हमारे ऋषि-मुनियों ने दीर्घकाल तक अक्षरों, मत्राओं, श्वरों पर मनन, चिन्तन एवं उसपर अध्ययन प्रयोग, अनुसंधान करके उनकी शक्तियों को पहचाना जिनका वर्णन वेद पुराणों आदि में किया है। इन्ही मंत्र शक्तियों से आश्चर्यजनक कार्य किया जो अविश्वसनीय से लगते हैं,यद्यपि समय के थपेड़ो के कारण उनके वर्णनों में कुछ अपभ्रंस सामिल हो जाने के वावजूद भी उनमें अभी भी काफी वैज्ञानिक अंश ऊपलब्ध है, बस थोड़ा सा उनके वास्तविक सन्दर्भ को दृष्टिगत रखते हुए प्रयोग करके प्रमाणित करने की आवश्यकता है
मंत्र विज्ञानः-मंत्र विज्ञान का सच यही है कि यह वाणी* की ध्वनि के विद्युत रूपान्तरण की अनोखी विधि है। हमारा जीवन,हमारा शरीर और सम्पूर्ण ब्रह्मांण जिस उर्जा के सहारे काम करता है,उसके सभी रूप प्रकारान्तर में विद्युत के ही विविध रूप हैं। मंत्र-विद्या में प्रयोग होने वाले अक्षरों की ध्वनि (उच्चारण की प्रकृति अक्षरों का दीर्घ या अर्धाक्षर, विराम, अर्धविराम आदि मात्राओं) इनके सूक्ष्म अंतर प्रत्यन्तर मंत्र-विद्या के अन्तर-प्रत्यन्तरों के अनुरूप ही प्रभावित व परिवर्तित किये जा सकते हैं। मंत्र-विज्ञान के अक्षर जो मनुष्य की वाणी की ध्वनि जो शरीर की विभिन्न नाड़ियों के कम्पन से पैदा होते हैं तथा जो कि मानव के ध्यान एवं भाव के संयोग से ही विशेष प्रकार कि विद्युत धारा उत्पन्न करते हैं वही जैव-विद्युत आन्तरिक या बाह्य वातावरण को अपने अनुसार ही प्रभावित करके परिणाम उत्पन्न करती है।
शारीरिक रोग उत्पन्न होने का कारण भी यही है कि जैव-विद्युत के चक्र का अव्यवस्थित हो जाना। जैव-विद्युत की लयबद्धता का लड़खड़ा जाना ही रोग की अवस्था है। जब हमारे शरीर में उर्जा का स्तर निम्न हो जाता है तब अकर्मण्यता आती है। मंत्र जप के माध्यम से ब्रह्मांणीय उर्जा-प्रवाह को ग्रहण-धारण करके अपने शरीर के अन्दर की उर्जा का स्तर ऊचा उठाया जा सकता है और अकर्मण्यता को उत्साह में बदला जा सकता है। चुकि संसार के प्राणी एवं पदार्थ सब एक ही महत चेतना के अंशधर है,इसलिये मन में उठे संकल्प का परिपालन पदार्थ चेतना आसानी से करने लगती है। जब संकल्प शक्ति क्रियान्वित होती है तो फिर इच्छानुसार प्रभाव एवं परिवर्तन भी आरम्भ हो जाता है।मंत्र साधना से मन, बुद्धि, चित अहंकार में असाधारण परिवर्तन होता हे। विवेक, दूरदर्शिता, तत्वज्ञान और ऋतमभरा बुद्धि के विशेष रूप से उत्पन्न होने के कारण अनेक अज्ञान जन्य दुखों का निवारण हो जाता है।

(* वाणी:-
चत्वारि वाक्परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः।
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति।।
(ऋग्वेद १।१६४।४५)
मनीषियों द्वारा यह ज्ञात हुआ है कि वाणी के चार चरण है, इनमें से तीन वाणियाँ (परा,पश्यन्ती तथा मध्यमा) प्रकट नहीं होती।गुफा में ही छिपी रहती हैं सभी मनुष्य वाणी के चौथे चरण (बैखरी) को ही बोलते हैं। शेष तीन वाणियोँ में शब्दोच्चार तो नहीं होता है किन्तु शक्तियों का भण्डागार छिपा रहता है।

वैखरी वाणी
वैखरी वाणी वार्तालाप में बोली जाती है यह मनुष्यों की वाणी है।

मध्यमा वाणी
मध्यमा वाणी में शब्दों का उच्चारण नहीं होता परन्तु संकेतों, हाव-भाव से अभिप्राय प्रकट होता है। बिना कुछ कहे-सुने भी व्यक्ति एक दूसरे की मनःस्थिति से अवगत
हो सकते हैं।

परावाणी यह विचारों के रूप में मस्तिष्क में चलती रहती है। इसका प्रत्यक्ष प्रकटीकरण तो मुखाकृति से भी नाम मात्र ही हो सकता है। यह बिना स्पर्श के भी विद्युत तरंगों के माध्यम से वातावरण में उर्जा का संचार करके दूसरों तक फैला देती है।

पश्यन्ती वाणी
पश्यन्ति वाणी का उदगम अन्तःकरण है, जिसमें से प्रभावशाली प्रवाह उदभूत करने के लिये यह आवश्यक है कि स्थूल शरीर के कार्यकलाप, सूक्ष्म शरीर के चिन्तन और कारण शरीर के सदभाव उच्च कोटि के रहें। इन सबकी संयुक्त उत्कृष्टता ही पश्यन्ति वाणी का निर्माण करती है। वह इतनी तीब्र हो सकती है कि अनाचार से लड़ सकती है तथा सत्प्रवृतियाँ दूरगामी प्रभाव ड़ाल सकती हैं।)

स्टीफेन हाँकिंग का रहस्यमय ब्रह्मांड
हाकिंग महाविज्ञानी आंइस्टाइन के आपेक्षिकता सिद्धान्त की व्याख्या करते हुये घोषित करते है कि दिक् और काल(Time and space) का आरम्भ महाविस्फोट (Big bang) से हुआ और इसकी परणति ब्लैक होल से होगी।
जार्ज गेमों द्वारा प्रतिपादित (१९४८)और फ्रेड हाँयल द्वारा नामित महाधमाका सिद्धांत कहता है कि आज से लगभग १५ अरब पूर्व महाधमाके के रूप में हमारे ब्रह्मांड की शुरुआत हुई, जब कि समूची द्रव्यरूप अत्यंत सूक्ष्म बिन्दु स्वरूप थी, इसी महाविस्फोट के साथ ब्रह्मांड का प्रसार हुआ। हाकिंग कहते हैं कि विस्फोट के पूर्व समय का कोई आस्तित्व नहीं था। वस्तुतः हम उससे पीछे नहीं झाक सकते समय कीशुरुआत हुई है तो इसकाअन्त भी होगा। तो क्या बह्मांड की उत्पत्ती के साथ उदभूत काल की समाप्ति ब्रह्मांड की समाप्ति के साथ होगी?
भारतीय वैज्ञानिक डा० सुब्रह्मण्यन चन्द्रशेखर के अनुसार किसी भी तारे के जीवन काल में एक ऐसा काल आता है जब तारे का समस्त हाइड्रोजन अथवा उसका नाभकीय ईधन समाप्त हो जाता है तो वह मृत्यु की ओर अग्रसर होता है अर्थात सिकुड़ना अरम्भ करता है।ऐसे में यदि उसका द्रव्यमान सूर्य के दुगने से अधिक होता हे तो वह नितन्तर सिकुड़ता जाता है और अन्ततोगत्वा एक बिन्दु के रूप में परिवर्तित हो जाता है। उसका गुरुत्व इतना प्रबल होता है कि उसमें से प्रकाश की किरणें भी नहीं निकल सकती । तारों की यह परिणति कृष्णविवर (Black Hole) ।इसविन्दु पर घनत्व असीम होगा कहलाती है जहां भौतिकी के सारे नियम फेल होजाते हैं। ब्रिटिश भौतिकविद डा० रोज़रपेनरोज़ ने एक आलेख में यह स्थापित किया है कि गुरुत्व के आधीन नक्षत्र अपने अवसान काल में अकस्मिक रूप से सून्य आयतन और असीम घनत्व प्राप्त कर लेते हैं। भौतिकी में इस स्थिति को विलक्षणता (Singularity) की स्थिति कहतें हैं। (आविष्कार जनवरी २००७) ।
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--- ॐ का महत्व--
ॐ का महत्व इस तथ्य से भी जाना जा सकता है कि नासा के वैज्ञानिकों ने आन्तरिक्ष में किसी अन्य ग्रह पर जीवन है कि नहीं,यह जानने के लिये जो ध्वनि चुनकर भेजी है; वह ॐ ही है।इसका तातपर्य यह है कि ब्रह्मांड में ॐ ही एक ऐसी ध्वनि है जो सभी जगह पहचानी जा सकती है तथा सभी के मूल श्रोत के रूप में है।

वेदाङ्गः (वेदार्थ ज्ञान में सहायक शास्त्र)
वेद समस्त ज्ञानराशि के अक्षय भंडार है, तथा प्राचीन भारतीय संस्कृति,सभ्यता एवं धर्म के आधारभूत स्तम्भ हैं। वेद धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चार पुरुषार्थों के प्रतिपादक हैं। वेद भी अपने अङ्गों के कारण ही ख्यातिप्राप्त हैं, अतः वेदाङ्गों का अत्याधिक महत्व है। यहां पर अङ्ग का अर्थ है उपकार करनेवाला अर्थात वास्तविक अर्थ का दिग्दर्शन करानेवाला। वेदाङ्ग छः प्रकार के हैः-
(१) शिक्षा,
(२) कल्प,
(३) व्याकरण,
(४) निरुक्त,
(५) छन्द और
(६) ज्योतिष ।
(१)- शिक्षाः- स्वर एवं वर्ण आदि के उच्चारण-प्रकार की जहाँ शिक्षा दी जाती हो,उसे शिक्षा कहाजाता है। इसका मुख्य उद्येश्य वेदमन्त्रों के अविकल यथास्थिति विशुद्ध उच्चारण किये जाने का है। शिक्षा का उद्भव और विकास वैदिक मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण और उनके द्वारा उनकी रक्षा के उदेश्य से हुआ है।
(२)-कल्पः- कल्प वेद-प्रतिपादित कर्मों का भलीभाँति विचार प्रस्तुत करने वाला शास्त्र है। इसमें यज्ञ सम्बन्धी नियम दिये गये हैं।
(३)-व्याकरणः-वेद-शास्त्रों का प्रयोजन जानने तथा शब्दों का यथार्थ ज्ञान हो सके अतः इसका अध्ययन आवश्यक होता है। इस सम्बन्ध में पाणिनीय व्याकरण ही वेदाङ्ग का प्रतिनिधित्व करता है। व्याकरण वेदों का मुख भी कहा जाता है।
(४)-निरुक्तः-इसे वेद पुरुष का कान कहा गया है। निःशेषरूप से जो कथित हो, वह निरुक्त है।इसे वेद की आत्मा भी कहा गया है।
(५)-छन्दः-इसे वेद पुरुष का पैर कहा गया है।ये छन्द वेदों के आवरण है। छन्द नियताक्षर वाले होते हैं। इसका उदेश्य वैदिक मन्त्रों के समुचित पाठ की सुरक्षा भी है।
(६)-ज्योतिषः-यह वेद पूरुष का नेत्र माना जाता है। वेद यज्ञकर्म में प्रवृत होते हैं और यज्ञ काल के आश्रित होते है तथा जयोतिष शास्त्र से काल का ज्ञान होता है। अनेक वेदिक पहेलियों का भी ज्ञान बिना ज्योतिष के नहीं हो सकता।

शनिवार, 9 अगस्त 2008

मङ्गलाचरण
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मंङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।।
अक्षरों,अर्थसमूहों, रसों छन्दों और मंगलों की करने वाली सरस्वतीजी और गणेशजी की मैं वन्दना करता हूँ।।
नि षु सीद गणपते गणेषु त्वामाहुविर्प्रतमं कवीनाम् ।
न ऋते त्वत् क्रियते किंचनारे महामर्कं मघमञ्चित्र मर्च ।।
(ऋग्वेद १०।११२।९)
अर्थात-
हे गणपति! आप अपने भक्तजनों के मध्य प्रतिष्ठित हों। त्रिकालदर्शी ऋषिरूप कवियों में श्रेष्ठ! आप सत्कर्मो के पूरक हैं। आपकी अराधना के बिना दूर या समीप में स्थित किसी भी कार्य का शुभारम्भ नही होता । हे सम्पति एवं ऐश्वर्य के अधिपति! आप मेरी इस श्रद्धायुक्त पूजा-अर्चना ,अभीष्ट फल को देने वाले यज्ञ के रूप में सम्पन्न होने हेतु वर प्रदान करें।
उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्ते देवयन्तस्त्वेमहे ।
उप प्र यन्तु मरुतः सुदानव इन्द्र प्राशूर्भवा सचा।।
(ऋग्वेद १।४०।१)
हे मंत्रसिद्धि के प्रदाता परमदेव ! सत्यसंकल्प से आपकी ओर अभिमुख हमें आपका अनुग्रह प्राप्त हो। शोभन दान से युक्त वायुमंडल हमारे अनुकूल हो। हे सुख-धन के अधिष्ठाता! भक्ति-भाव से समर्पित भोग-राग को आप अपनी कृपा-दृष्टि से अमृतमय बनादें।
गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कविनामुपमश्रवस्तमम्।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ नः शृ्ण्वन्नूतिभिः सीद सादनम् ।।
(ऋग्वेद २।२३।१)
वसु,रुद्र,आदित्य आदि गणदेवों के स्वामी,ऋषिरूप कवियों में वंदनीय दिव्य अन्न-सम्पति के अधिपति,समस्त देवों में अग्रगण्य तथा मन्त्र-सिद्धि के प्रदाता हे गणपति! यज्ञ,जप तथा दान आदि अनुष्ठानों के माध्यम से आपका आह्वान करतें हैं। अप हमें अभय वर प्रदान करें।
ॐ भूभुर्वः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात् ।।
(ऋग्वेद ३।६२।१०)
उस प्राण स्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप,श्रेष्ठ, तेजस्वी परमात्मा को हम अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करे ।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।।
(ऋग्वेद ७।५९।१२) (शुक्ल यजुर्वेद ३।६०)
अर्थात-
हम त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकर की पूजा करते हैं,मंत्यधर्म से (मरणशील मानवधर्म मृत्यु से) रहित दिव्य सुगन्धि से युक्त, उपासकों के लिये धन-धान्य आदि पुष्टि को बढ़ाने वाले हैं। वे त्रिनेत्रधारी उर्वारुक(कर्कटी या ककड़ी-जो पकने पर स्वतः पौध से अलग हो जाती है) फल की तरह हम सबको अपमृत्यु या सांसारिक मृत्यु से मुक्त करें। स्वर्गरूप या मुक्तिरूप अमृत से हमको न छुड़ायें अर्थात् अमृत-तत्व से हम उपासकों को वंचित न करे ।
स्तुता मया वरदा वेदमाता प्र चोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्।
आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्। मह्यं दत्वा व्रजत ब्रह्मलोकम्।।
अर्थात- पापों का शोधन करने वाली वेदमाता हम द्विजों को प्रेरणा दें। मनोरथों को परिपूर्ण करने वाली वेदमाता आज हमने स्तुति की है। मनोऽभिलासित वरप्रदात्री यह माता हमें दीर्घायु, प्राणवान्;, प्रजावान्, पशुमान् धनवान्, तेजस्वी तथा कीर्तिशाली होंने का आशीर्वाद देकर ही ब्रह्मलोक को पधारें।
ॐ असतो मा सद् गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्माऽमृतं गमय।।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदः पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
अर्थात्- ॐ की व्याख्या करते हुए शास्त्र कहते हैं कि - वह भी पूर्ण हे, यह भी पूर्ण है,पूर्ण से पूर्ण उत्पन्न होता है,और पूर्ण से पूर्ण निकल जाने के बाद पूर्ण ही शेष रह जाता है। ईश्वर परोक्ष है। जीव प्रत्यक्ष है। ईश्वर की पूर्णता प्रसिद्ध है किन्तु जीव भी अपूर्ण नहीं है क्यों कि जीव ईश्वर का ही अंश है।

शुक्रवार, 16 मई 2008

मंत्रविज्ञानः -मंत्र विज्ञान का सच यही है कि यह वाणी* की ध्वनि के विद्युत रूपान्तरण की अनोखी विधि है। हमारा जीवन,हमारा शरीर और सम्पूर्ण ब्रह्मांण जिस उर्जा के सहारे काम करता है,उसके सभी रूप प्रकारान्तर में विद्युत के ही विविध रूप हैं। मंत्र-विद्या में प्रयोग होने वाले अक्षरों की ध्वनि (उच्चारण की प्रकृति अक्षरों का दीर्घ या अर्धाक्षर, विराम, अर्धविराम आदि मात्राओं) इनके सूक्ष्म अंतर प्रत्यन्तर मंत्र-विद्या के अन्तर-प्रत्यन्तरों के अनुरूप ही प्रभावित व परिवर्तित किये जा सकते हैं। मंत्र-विज्ञान के अक्षर जो मनुष्य की वाणी की ध्वनि जो शरीर की विभिन्न नाड़ियों के कम्पन से पैदा होते हैं तथा जो कि मानव के ध्यान एवं भाव के संयोग से ही विशेष प्रकार कि विद्युत धारा उत्पन्न करते हैं वही जैव-विद्युत आन्तरिक या बाह्य वातावरण को अपने अनुसार ही प्रभावित करके परिणाम उत्पन्न करती है।
शारीरिक रोग उत्पन्न होने का कारण भी यही है कि जैव-विद्युत के चक्र का अव्यवस्थित हो जाना। जैव-विद्युत की लयबद्धता का लड़खड़ा जाना ही रोग की अवस्था है। जब हमारे शरीर में उर्जा का स्तर निम्न हो जाता है तब अकर्मण्यता आती है। मंत्र जप के माध्यम से ब्रह्मांणीय उर्जा-प्रवाह को ग्रहण-धारण करके अपने शरीर के अन्दर की उर्जा का स्तर ऊचा उठाया जा सकता है और अकर्मण्यता को उत्साह में बदला जा सकता है। चुकि संसार के प्राणी एवं पदार्थ सब एक ही महत चेतना के अंशधर है,इसलिये मन में उठे संकल्प का परिपालन पदार्थ चेतना आसानी से करने लगती है। जब संकल्प शक्ति क्रियान्वित होती है तो फिर इच्छानुसार प्रभाव एवं परिवर्तन भी आरम्भ हो जाता है।

रविवार, 13 अप्रैल 2008

प्राणायाम-उद्वेग,चिन्ता,क्रोध,निराश,भय और कामुकता आदि मनोविकारों का समाधान-प्राणायाम- द्वारा सरलता पूर्वक किया जा सकता है।इतना ही नहीं मस्तिष्क की क्षमता बढ़ाकर स्मरण-शक्ति, कुशाग्रता, सूझबूझ, दूरदर्शिता, शूक्ष्म निरिक्षण, धारणा, मेधा आदि मानसिक विषमताओं का अभिवर्धन करके प्राणायाम द्वारा दीर्घजीवी बनकर जीवन का वास्तविक आनन्द प्राप्त किया जा सकता है

सोमवार, 17 मार्च 2008

(1)दुःखः- आसक्ति से बढ़ कर कोई दुःख नहीं है
(2)आलस्य दरिद्रता की जड़ है।
(3) अशुभ भविष्य की चिन्ता में उद्विग्न न रहो, साहस पूर्वक प्रगति का प्रयास करते रहो और प्रसन्न रहो।

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2008

श्री गणेशाय नमः
The aim of the website is to establish the importance of VEDA and its real and scentific knowlede by proving with current and known scentific experiments and theories.There are many RICHAS in different SUKATS of VEDA in shape of MANTRAS . We feel its impact on our daily life when we do JAPA in systematic way. How it effects our daily life in different ways.Many of us cannot deny the impact of GAYITRI MANTRA.(Rig.Veda-3/62/10)
Aim of the website is also to study and establish the base of VADIC MANTRAS.
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वेद-विद्या भारतीय संस्कृति का पहला प्रतीक है।वेद्यतेऽनेनेति वेदः अर्थात इससे सब कुछ जाना जाता है, इसलिये इसे वेद कहते हैं। अतः वेद का अर्थ है ज्ञान।
ब्रह्म क्या है? जीव क्या है? आत्मा क्या है? ब्रह्मांण्ड की उत्पत्ति कैसे हुई है? इन सभी बिंन्दुओं पर विस्त्रित व्याख्या हमारे वेदों में भरी पडी़ है। सम्पूर्ण पिण्ड-ब्रह्माण्ड और परमात्मा को जानने का विज्ञान ही वेद है। वेद मानव सभ्यता,भारतीय संस्कृति के मूल श्रोत हैं। इनमें मानव-जीवन के लौकिक एवं पारलौकिक उन्नति के लिये उपयोगी सभी सिद्धान्तों एवं उपदेशों का अद्भुत वर्णन है।वेद ज्ञान का अनन्त श्रोत है। कदाचित् सम्पूर्ण ज्ञान की अविरल धारा वेदों से ही प्रवाहित होकर लोक कल्याण का कारण बनी है।ऋग्वेद,यजुर्वेद,सामवेद तथा अथर्ववेद की ऋचाओं में न जाने कितने वैज्ञानिक अनुसंधानों का निचोड़ समाया है।न जाने कितने अनुसंधान आज वेदों में समाये इस असीम ज्ञान के परिपेक्ष्य में हो रहे हैं। वेद एक प्रकार से मंत्र का विज्ञान है जिसमें विराट् विश्व ब्रह्मांड कीउन अलौकिक शूक्ष्म एवं चेतन सत्ताओं एवं शक्तियों तक से सम्बन्ध स्थापित करने करने के गूढ़ रहस्य दिये हुये है। भौतिक विज्ञानी अभी तक इस क्षेत्र में मामुली सी जानकारी ही प्राप्त कर सके हैं। यह वेबसाइट वेदों में समाहित इन्हीं वैज्ञानिक अनुसंधानों को उजागर करने का प्रयास मात्र है।वेबसाइट बनाने का उदेश्य यह भी है कि समस्त मानवजाति अपने पूर्वजो द्वारा चाहे वो किसी धर्म, जाति, देश के रहे हों,के अथक परिश्रम, वैज्ञानिक चिन्तन,अनुभवो ,प्रयासों पर जो कि उनके द्वारा आगे आने वाली पीढ़ियों के सुख-शान्ति ,सम्पन्न ,स्वस्थ जीवन बिताने एवं पूरे विश्व का कल्याण करने के पथ पर अग्रसर होते रहने के उदेश्य से किये गये हैं,पर मानव-समाज की चेतना को जाग्रत करके इसपर चर्चा-परिचरचा करके सम्पूर्ण विश्व में सुख शान्ति का मार्ग ढ़ूढ़ने के लिये प्रेरित करना एवं उत्साहित करना है। कदाचित् सुधीजनों का सहयोग इसकी सार्थकता को प्रमाणिक स्वरूप दे सके।
विशेष निवेदनः- यह वेबसाइट अभी निर्माणाधीन है। आपके सुझाव ऐवं सहयोग का विशेष स्वागत है।
special request:- We affably invite your suggestion and cooperation.
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